रोज पार्क में सुना था 🏞

 

रोज पार्क में सुना था🏞

 

 

रोज पार्क के बारे में बहुत था सुना ,

जाने के लिए मैनें रविवार का दिन चुना |

बिना बताए मैं घर से चुपचाप निकल रहा था ,

कितना सुन्दर दृश्य होगा सोचकर मचल रहा था |

पहला कदम पड़ा पार्क में तो साँसे रुक गई ,

दूर दूर तक दौड़ी नजर फिर झुक गई |

गुलाब तो नहीं वहाँ सिर्फ दिख रहीं थीं गुलाबों ,

सबके साथ था हाथ थामे एक माली |

मैनें भी अपने दाएँ  बाएँ देखा ,

मेरे हाथ में थी डायरी दूसरा था खाली ,|

मैनें अपनें डायरी को समझाया ,

तू मेरी गुलाबों मैं हूँ तेरा माली |

चल यहाँ की दृश्य को कविता बनाए |

बैठकर यही पन्ने भरते हैं कुछ खाली |

प्रेमी प्रेमिका सरेआम हरकतें अश्लील कर रहें थे ,

प्रेम के नाम पर प्रेम शब्द को जलील कर रहें थें |

पर्दे में शोभनीय था प्रेम अब पार्क में होने लगा ,

फैशन के इस दौर में संस्कार सब खोने लगा|

जंघे तक थे कपडे कोई इज्ज़त नहीं था ,

बताये कोई हमें क्या ये प्रेम सही था |  

कैसा प्रेम का पुजारी जब जिस्म का भूखा वही था |

हकीकत तो ये है “रंजीत “ वो प्रेम नहीं था ||


 


 कवि –रंजीत मद्धेशिया

पावानगर कुशीनगर

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